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ओशो रजनीश
On Blogger since: January 2010
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GenderMale
IndustryReligion
Occupationपाखंड पर चोट
Locationजबलपुर, मध्य प्रदेश, India
Introductionरजनीश चन्द्र मोहन (११ दिसम्बर १९३१ - १९ जनवरी १९९०) ओशो के नाम से प्रख्यात हैं जो अपने विवादास्पद नये धार्मिक (आध्यात्मिक) आन्दोलन के लिये मशहूर हुए और भारत और संयुक्त राज्य अमेरिका में रहे। रजनीश ने प्रचलित धर्मों की व्याख्या की तथा प्यार, ध्यान और खुशी को जीवन के प्रमुख मूल्य माना। ओशो रजनीश (११ दिसम्बर, १९३१ - १९ जनवरी १९९०) का जन्म भारत के मध्य प्रदेश राज्य के जबलपुर शहर में हुआ था। १९६० के दशक में वे आचार्य रजनीश के नाम से ओशो रजनीश नाम से जाने गये। वे एक आध्यात्मिक नेता थे तथा भारत व विदेशों में जाकर प्रवचन दिये।
Interestsओशो ने सैकडों पुस्तकें लिखीं, हजारों प्रवचन दिये। उनके प्रवचन पुस्तकों, आडियो कैसेट तथा विडियो कैसेट के रूप में उपलब्ध हैं। अपने क्रान्तिकारी विचारों से उन्होने लाखों अनुयायी और शिष्य बनाये। अत्यधिक कुशल वक्ता होते हुए इनके प्रवचनों की करीब ६०० पुस्तकें हैं। संभोग से समाधि की ओर इनकी सबसे चर्चित और विवादास्पद पुस्तक है। इनके नाम से कई आश्रम चल रहे है।
Favorite moviesओशो ने हर एक पाखंड पर चोट की। सन्यास की अवधारणा को उन्होंने बारत की विश्व को अनुपम देन बताते हुए सन्यास के नाम पर भगवा कपड़े पहनने वाले पाखंडियों को खूब लताड़ा। ओशो ने सम्यक सन्यास को पुनरुज्जीवित किया है। ओशो ने पुनः उसे बुद्ध का ध्यान, कृष्ण की बांसुरी, मीरा के घुंघरू और कबीर की मस्ती दी है। सन्यास पहले कभी भी इतना समृद्ध न था जितना आज ओशो के संस्पर्श से हुआ है। इसलिए यह नव-संन्यास है
Favorite musicउनकी नजर में सन्यासी वह है जो अपने घर-संसार, पत्नी और बच्चों के साथ रहकर पारिवारिक, सामाजिक जिम्मेदारियों को निभाते हुए ध्यान और सत्संग का जीवन जिए। उनकी दृष्टि में एक संन्यास है जो इस देश में हजारों वर्षों से प्रचलित है। उसका अभिप्राय कुल इतना है कि आपने घर-परिवार छोड़ दिया, भगवे वस्त्र पहन लिए, चल पड़े जंगल की ओर। वह संन्यास तो त्याग का दूसरा नाम है, वह जीवन से भगोड़ापन है, पलायन है। और एक अर्थ में आसान भी है-अब है कि नहीं, लेकिन कभी अवश्य आसान था। भगवे वस्त्रधारी संन्यासी की पूजा होती थी। उसने भगवे वस्त्र पहन लिए, उसकी पूजा के लिए इतना पर्याप्त था।
Favorite booksवह दरअसल उसकी नहीं, उसके वस्त्रों की पूजा थी। वह सन्यास इसलिए भी आसान था कि आप संसार से भाग खड़े हुए तो संसार की सब समस्याओं से मुक्त हो गए। क्योंकि समस्याओं से कौन मुक्त नहीं होना चाहता? लेकिन जो लोग संसार से भागने की अथवा संसार को त्यागने की हिम्मत न जुटा सके, मोह में बंधे रहे, उन्हें त्याग का यह कृत्य बहुत महान लगने लगा, वे ऐसे संन्यासी की पूजा और सेवा करते रहे और सन्यास के नाम पर परनिर्भरता का यह कार्य चलता रहा : सन्यासी अपनी जरूरतों के लिए संसार पर निर्भर रहा और तथाकथित त्यागी भी बना रहा। लेकिन ऐसा सन्यास आनंद न बन सका, मस्ती न बन सका। दीन-हीनता में कहीं कोई प्रफुल्लता होती है ? धीरे-धीरे सन्यास पूर्णतः सड़ गया। सन्यास से वे बांसुरी के गीत खो गए जो भगवान श्रीकृष्ण के समय कभी गूंजे होंगे-सन्यास के मौलिक रूप में। अथवा राजा जनक के समय सन्यास ने जो गहराई छुई थी, वह संसार में कमल की भांति खिल कर जीने वाला सन्यास नदारद हो गया।
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